कहानी- एक तन्हा रूह की।
कहानी- एक तन्हा रूह की।
क्या आरज़ू थी, क्या जुस्तजू थी
ज़िंदगी से लड़ती, तन्हा एक रूह थी।
कहानी है कुछ ऐसी...
उस अन्धेरी रात में, सुनसान राह में
एक उम्मीद दिखाई दी।
लगा एक सहारा है,
जीत का किनारा है।
कदम जैसे थमे नहीं
वहाँ पहुँचने तक रुकें नहीं,
करीब जा कर पता चला
आहट थी अधमरी मौत आने की,
उस रात के ग्रहण में जल जाने की।
सोचा न था कभी, इस ख़ौफ़ के बारे में
इस मौत के बारे में,
इस ख़ौफ़ के बारे में।
वापस लौटना, वक़्त को गवारा न था
साथ कोई अपना हमारा न था।
क़िस्मत ने हमें मज़लूम बना दिया,
वो तो जैसे एक महशर का दिन था,
जिस दिन ने दुनिया से हमें महरूम करा दिया।
वो सिसकियाँ, वो आँसू
सब ढह गए तूफ़ान में,
क्योंकि दुनिया के लिए,
वो भी एक नज़ारा था।
मदमस्त होना सबको गवारा था
जिस पर बस न हमारा था,
वो भी एक नज़ारा था।
आज...
अधमरी मौत पाकर भी ज़िंदा है,
ज़िंदा है यह जिस्म, अब भी ज़िंदा है।
लड़ रही है ज़िन्दगी से,
ये रूह तन्हा होकर
ज़िन्दगी से ज़िन्दगी के लिए,
उस आरज़ू, जुस्तजू के लिए।
जो शायद...फिर कभी,
ये एहसास दे...
की जिस्म ही नहीं, ये रूह भी ज़िंदा है।
ज़िंदा है हर ख़ुशी के लिए,
ये रूह भी ज़िंदा है।