खामोश सर्द एक रात थी
खामोश सर्द एक रात थी
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खामोश सर्द एक रात थी,
एक हसीना साथ थी,
ना होश रहा कंपकपाने का,
ना वक़्त के गुजर जाने का,
ना वो बोले ना हम बोले,
अब क्या बोले कैसे बोलें,
लगा साथ ही होना काफ़ी है,
ये लम्हा ही मिलना काफ़ी है,
गर एक बात ज़ुबान पर आ जाती,
बड़ी मुश्किल हमारी हल हो जाती,
पर जवाब क्या होगा इसका डर था,
जो था वो खोने का डर था,
तब ही उनके लब सकुचाए,
जो बोले वो हम सुन ना पाए,
वो आए करीब कुछ कहने को
हम भी हुए करीब वो सुनने को,
जो कहा उन्होने वो एसा कुछ था,
जैसा हम कहना चाहते थे वेसा कुछ था,
लगा खुशी से मर ना जायें,
कही नींद ना टूटे ओर हम उठ जायें,
पर ये सब ना कोई सपना था,
जो सामने था अब वो अपना था,
खामोश सर्द एक रात थी,
एक हसीना साथ थी।