कड़वा -घूँट
कड़वा -घूँट
सड़क किनारे बदहवास सा बैठा है
वो मुट्ठी भर झोली में अपनी
दुनिया बसाये बैठा है
बदहाली के मिजाज़ हैं
तकलीफें बेहिसाब हैं
रहगुज़र सा एक मुसाफिर हूँ मैं
सांसें ज़िंदा हैं होश का हिसाब क्या दूँ ?
कभी नशे में गम को भुला देता हूँ
तो कभी रोटी के आधे
टुकड़े में जिया जाता हूँ
मैं ज़िन्दगी के इस कड़वे घूंट
को अकेले ही पिया जाता हूँ।
