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Naresh Singh Nayal

Abstract

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Naresh Singh Nayal

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कच्चा मकान

कच्चा मकान

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अकसर बारिश में ,

वो रोता सा दिखता था ,

हर बारिश के मौसम में ,

अपना धैर्य खो बैठता था ,

छत टपक टपक कर ही ,

मेरी नाकामी का संदेश ,

मानो पूरी तरह से सुना जाता था ,

मेरा कच्चा मकान ,

मुझे रुला जाया करता था।


दर और दीवार भी ,

सीलन में सहम जाती हैं ,

जो कपड़े बचे हैं कुछ ,

उनको भी सफेदी दे जाती हैं ,

कुछ यादें अनमोल बसती हैं ,

इस आकार के हर कोने में ,

जो वक़्त के साथ ही ,

हर बारिश धुलती जाती हैं।


कैसे ईट पत्थर जोड़कर ,

बना लूं पक्का मकान ,

खड़ा भी कर लूं ,

तो क्या कितना टिक पाएगा ,

बिन रिश्तों बिन भावनाओं के ,

चल पाएगा पक्का मकान ,

जब दिल और दिमाग दोनों ही ,

स्वच्छंद रह जाते हैं ,

खूब खिलखिलाते हैं ,

जब बाहें खोलकर ,

मानो बुलाता हो हमें ,

हमारा कच्चा मकान ।



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