कच्चा मकान
कच्चा मकान
अकसर बारिश में ,
वो रोता सा दिखता था ,
हर बारिश के मौसम में ,
अपना धैर्य खो बैठता था ,
छत टपक टपक कर ही ,
मेरी नाकामी का संदेश ,
मानो पूरी तरह से सुना जाता था ,
मेरा कच्चा मकान ,
मुझे रुला जाया करता था।
दर और दीवार भी ,
सीलन में सहम जाती हैं ,
जो कपड़े बचे हैं कुछ ,
उनको भी सफेदी दे जाती हैं ,
कुछ यादें अनमोल बसती हैं ,
इस आकार के हर कोने में ,
जो वक़्त के साथ ही ,
हर बारिश धुलती जाती हैं।
कैसे ईट पत्थर जोड़कर ,
बना लूं पक्का मकान ,
खड़ा भी कर लूं ,
तो क्या कितना टिक पाएगा ,
बिन रिश्तों बिन भावनाओं के ,
चल पाएगा पक्का मकान ,
जब दिल और दिमाग दोनों ही ,
स्वच्छंद रह जाते हैं ,
खूब खिलखिलाते हैं ,
जब बाहें खोलकर ,
मानो बुलाता हो हमें ,
हमारा कच्चा मकान ।
