कभी-कभी
कभी-कभी
जब टूटती है आस
खो जाता है विश्वास
नहीं रहता यकीन
अपनों पर भी कभी कभी!!
जब छा जाते हैं काले बादल नीले आसमान में
मन के गहन कोने में भी
छा जाता है तब अंधकार कभी-कभी!!
पतझड़ में इंतजार रहता है बहार का
मगर जब आती है बहारें
यह मन रेगिस्तान
बन जाता है कभी-कभी!!
आग की भट्टी में जलकर जो कुंदन हुए थे
वह पारस भी अपना महत्व
भूल जाते हैं कभी कभी!!
खिड़कियों के भी होते हैं कान
अक्सर सुना है लोगों से
अपने ही धोखा दे जाते हैं
बिन बताए कभी-कभी!!
ईमान से बढ़कर नहीं दौलत है कोई
सरल स्वभाव से बढ़कर नहीं शौहरत है कोई
बदलती ऋतु में भी यह दौलत
यह सरलता दगा दे जाती है कभी-कभी!!
नहीं उम्मीद अब है किसी से
ना शिकवा भी है कोई
फिर भी यह वक्त की सूई
आस जगा देती है कभी-कभी।।
