कभी कभी मुवी
कभी कभी मुवी
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िंदगी तिरी जुल्फों कि नर्म छांव में गुज़रने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी।
यह रंज-ओ-ग़म कि सियाही जो दिल पे छाई है
तेरी नज़र कि शुआओं में खो भी सकती थी।
मगर यह हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तेरा ग़म तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़र रही हैं कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे कि आरज़ू भी नहीं
न कोई राह, न मंजिल, न रौशनी का सुराग
भटक रहीं है अंधेरों में ज़िंदगी मेरी
इन्हीं अंधेरों में रह जाऊंगा कभी खो कर
मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस, मगर यूं ही
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है।