कब तक ? ( 14 )
कब तक ? ( 14 )
अंधे-बहरे और गूंगे बनकर कब तक रहोगे ?
अपनें माँ-बहन और बेटियों की
अस्मिता की अर्थियां कब तक उठाते रहेंगें ?
ऐसे ही जानें इनकी हम कब तक गंवाते रहेंगें ?
कब तक हम
तख्तियाँ और मोमबत्तियां लेकर चलते रहेंगें ?
अश्रु भरी आँखें लेकर कब तक गिड़गिड़ाते रहेंगें ?
अपनी यह करुणा की
दर्द भरी दास्तानें किसको सुनाएंगे ?
तुम्हारी यह दास्तान
दर्द भरी कौनसी सरकार या कानून सुनेगा ?
चंद दिनों की चर्चा और हल्ला होगा,
फिर हर दिमागी मैदान साफ हो जाएगा,
हर बदन की अस्मिता पर सदन के सियासती
अपनी-अपनी राजनीति को चमकाएंगे,
हर घटना को वो दबा कर वापस लौट जाएंगें,
जो पहुंचे नेताओं की फ़ौज वहां
माँ-बेटी या बहन का बदन जले
उनकी कुर्सियां हमेशा उनकी चमके,
दर्द जिसका है जीवन-भर वो अपना दंश झेले,
कब तक हम यूँ ही दर्द झेलते-झेलते जीते रहेंगें ?
सदी दर सदी हम यूँ ही सिर पर दर्द का बोझ ढोएंगें ,
तो आने वाली पीढ़ियों को क्या जवाब दोगे ?
आज अगर हम नहीं जागे तो
निश्चित ही हार हमारी निश्चय है,
ऐसा लगेगा जैसे जीवनदान की भीख मांगकर,
कायर हम सब एक दिन कहलाएंगे,
किसकी आस पर जी रहे है हम और तुम ?
कोई-सी सरकार या कानून कुछ भी नहीं सुनेगा ?
कई संघठन बने और बिगड़े
पर तुम्हारे काम नहीं कोई आएगा
क्योंकि........!
सब अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग
अलापते हैं,
जो अब तक एक हो कर ये लड़ाई नहीं लड़ पाएं हैं
जब-जब जरूरत पड़ी है इनकी भागते नजर आए हैं,
मर जाओगे मिट-जाओगे एक दिन सब,
जब एक होकर नहीं लड़ोगे ये लड़ाई,
इतिहास गवाह है
अपनी-अपनी फूट का गुलाम जीवन ही जीना है,
फिर से मत दोहराओ तुम वो इतिहास,
इतिहास के उन पन्नो पर फिर से
कायरता का नाम मत लिखवाओ,
अपने ही हाथों अपनी मर्यादाओं की
अर्थियां अपने कांधे मत तुम उठवाओ !!