कौन सा धर्म ?
कौन सा धर्म ?
इस शहर में एक अजीब सा सन्नाटा है पसरा,
जब खूनी हाथों ने सड़को को घेरा।
भीड़ है चलती हुई दिखती हर जगह,
तलाश है सबको किसी ना किसी की यहाँ।
कोई अपनों को है ढूंढता,
कोई चुपके से खिड़की से है झांकता।
यहाँ मासूम चेहरे हरे है डरे हुए, सहमे हुए।
नकाबपोश जब घर से निकल रहे,
कौन भड़काता है इस भीड़ को इतना,
की मुनासिब लगता अपनों का ही गाला कटना।
अरे खून का रंग तो एक सा ही है सबका,
तो धर्म को सबसे ऊपर क्यों रखा।
बेकसूर लोगों को हर कोई है पिसता,
कोई समझाओ इन्हे, जिसके नाम पर
ये मार काट करते है,
कभी उसकी दिखाई राह पर भी चलके देखो,
उसने एक ही धर्म सिखलाया,
इंसानियत को सबसे बड़ा है बताया,
अगर इतनी सी बात नहीं समझते हो तुम,
तो कौन से धर्म के आगे हाथ जोड़ते हो तुम।।