कैसे?
कैसे?
प्रेम हो जाता है मौन,
जब अपना हो जाता है कौन।
जहाँ पहले शब्द होते थे - रह जाती श्वास है - शव आस है।
त्रिभुज के ऊपरी कोण पर ऊंचा खड़ा स्नेह,
धीरे-धीरे फिसलता है
निचले कोण तक,
आधार ठंडा है,
पर अस्तित्व कुछ तो है - कुछ भी है।
वक़्त के साथ मन का तापमान
बदलता रहता है,
कभी धूप-सा गर्म,
तो कभी बर्फ सा चुप।
सच में,
प्रेम से खामोशी तक
और खामोशी से क्रोध तक -
एक लंबी यात्रा है -
अदृश्य, अस्फुट,
शायद हर रिश्ते में लिखी हुई।
और यह,
तब तक चलता है,
जब तक खुद अपनी राख में हम समाधि न पा ले।
क्योंकि,
शव - न प्रेम करता है, न क्रोध।
यह स्पंदन, यह टूटन,
मौन की चीख,
इस प्रश्नचिन्ह पर रुक जाती है,
कि देह के भीतर कैसे गूंजता रहता था,
वह अधूरापन?
