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Chandresh Kumar Chhatlani

Abstract

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Chandresh Kumar Chhatlani

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कैसे?

कैसे?

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प्रेम हो जाता है मौन,
जब अपना हो जाता है कौन।
जहाँ पहले शब्द होते थे - रह जाती श्वास है - शव आस है।

त्रिभुज के ऊपरी कोण पर ऊंचा खड़ा स्नेह,
धीरे-धीरे फिसलता है
निचले कोण तक,
आधार ठंडा है,
पर अस्तित्व कुछ तो है - कुछ भी है।

वक़्त के साथ मन का तापमान
बदलता रहता है,
कभी धूप-सा गर्म,
तो कभी बर्फ सा चुप।

सच में,
प्रेम से खामोशी तक
और खामोशी से क्रोध तक - 
एक लंबी यात्रा है - 
अदृश्य, अस्फुट,
शायद हर रिश्ते में लिखी हुई।

और यह,
तब तक चलता है,
जब तक खुद अपनी राख में हम समाधि न पा ले।

क्योंकि,
शव - न प्रेम करता है, न क्रोध।

यह स्पंदन, यह टूटन,
मौन की चीख,
इस प्रश्नचिन्ह पर रुक जाती है,
कि देह के भीतर कैसे गूंजता रहता था,
वह अधूरापन?


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