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ARVIND KUMAR SINGH

Inspirational

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ARVIND KUMAR SINGH

Inspirational

कालिख

कालिख

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नादान तूने नियति के

नियमों को तोड़ा है

अतिक्रमण फिजाओं

में जहर को घोला है


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


दिन रात इतनी सारी

जो फैक्ट्रियां चलती हैं

एक दिन में हजारों टन

वो धुएं को उगलती हैं


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


गाड़ियों से निकली थी

वो वातावरण में छा गई

शुध्द आवोहवा को भी

देखो कालिख खा गई


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


बम और मिसाइलों से

आसमान भी दहला है

कुदरत के ऊपर पहले

पहल अटैक भी तेरा है


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


रक्षा कवच कुदरती एक

जो ओजोन का घेरा है

पैरों पे कुल्हाड़ी मार के

अब उसको भी तोड़ा है


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


उठते बैठते देख रहा

तरक्की का जो सपना

पहले जीने की खातिर

बदल नजरिया अपना


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है


जहर होगा फिजाओं में

फिर सांस कहां पर लेगा

रोज टनों के हिसाब से

जो कालिख हवा को देगा


तरक्की जिसे समझ रहा, मौत का कुंआ है

पैदल चलना भी है दूभर चारों तरफ धुआं है



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