कागज़
कागज़


बेहद मसरूफ सुबह थी आज
दौड़ते भागते वक्त के बीच साँसें
भी घड़ियां गिन रही थी आज
फहरिस्तों फरमाइशों का अपना कोना था
एक दूजे के कांधे का सहारा ले रोना था।
तभी एक कोने से कोई चिल्लाया
बेहद रुंधे गले से कागज ने अपना दुख-दर्द सुनाया।
सिसकियों से भरी वो आवाज थी
अपने भीतर समेटे कई राज़ थी।
वक्त अभी भी भाग रहा था, पर सिसकियों को
ठहरे कदमों का ही सहारा था।
एक हूक सी उठी आवाज में सुनो कहकर
ढ़ाढस बंधा ठिठक गई उस आवाज से मैं
बेहद सहमकर जब आंसुओं का कारण पूछा
तब सिसककर उसने अपना दुखड़ा रोया
कहा कलम की झनकार कानों में रस घोलती है
तो क्या कागज की सफेदी नज़रों में नहीं कचोटती है ?
अचंभित थी उस प्रश्न बाण से, कोरा ज़रूर था
कागज पर प्रश्नों का उस पर अंबार सजा था।
कागज उत्तर पाने को आतुर था
पर उत्तर देने के लिए मन कातर था।
नज़र अपराधी सी खड़ी थी परछाई खुद की खुद से बड़ी थी।
तभी कागज ने मौन तोड़ा कटाक्ष
कलम की कहानी पर कर बोला।
कलम की कहानी जिस कागज पर उकेरी जाती है,
उस कागज की दास्तां क्यों अनकही अनसुनी रह जाती है।
सिसकियों को अपनी समेटा कुछ
अधिक नहीं अल्प शब्दों में समेटा
उत्तर को तैयार थी मैं पर प्रत्युत्तर के
भय से परेशान थी मैं।
लड़खड़ाती आवाज में कहा कागज़ तेरा हाल मन जैसा है
कुछ अनुचित हो तो सब मन को दोष देते हैं
पर सर्वश्रेष्ठ हो तो "बुद्धि"-मान करार देते हैं।
उसी कोने में अपने उत्तर और एक प्रश्न के साथ कागज को
छोड़ अपनी मसरूफियत में लौट चली थी मैं।