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Sheela Sharma

Abstract

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Sheela Sharma

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जुस्तजू

जुस्तजू

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जिन्दगी में कोई चुभन सी है

जिन्दगानी में कुछ कमी सी है

कायनाथ में कैसी तीरगी है

तमन्ना क्यों बुझी सी है

ख्याल अन्दर जो बसाया

जनाजा है हर गुजरते क्षण का

मंजिलो की तलाश सर्वत्र

सघन संसाधनों के बावजूद कमी सी है

हर शै की शुरुआत ही ख्वाब

ढेरों दफन वक्त के ताबूत में

होते साकार पर वक्त के मोहताज

फैले ब्रह्माण्ड में 

बीता वक्त कभी न लौटता

मिटकर स्वप्न बुनने को तैयार रहता

अल्हण मन नहीं समझता ये धूप छाँव

भ्रम में जुड़ता तो कभी टूटता

स्वप्न में मत उलझ दृष्टा बन ,सृष्टि से

हो मुक्त मन को ,सृष्टा कर

न जन्म लेती न नष्ट होती अखण्ड से खण्ड

फिर खण्ड से अखण्ड कर

रव्याल कभी द्रुत मन्द कभी स्पष्ट से

अस्पष्ट ,नक्शे रेत जैसे

रहता चमन मे बहार का आलम

कभी बदलती रंगत फिजा जैसे

कारवां से बिछड़ गये ,हम चले राह अजनबी 

जुनून की ,सुकून की ,यकीन की कर जुस्तजू



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