ज़ुल्म और जुर्म
ज़ुल्म और जुर्म
जुर्म कर रहे हैं वो जुल्म सह रहे हैं जो,
बंध के बंदिशों की बेड़ियों में रह रहे हैं जो।
जो तूफानों का कभी मोड़ रूख देते थे,
आजकल बिन हवाओं के बह रहे है वो।
जो उठाते थे आवाज सबके हित के लिये,
अब हो गये स्तब्ध कुछ न कह रहे हैं वो।
जिनके हौसलों की उड़ान से वाकिफ आसमां भी था,
हौसलों का तोड़ के महल अब ढह रहे हैं वो।
जो शांति की प्रतिमूर्ति बताते खुद को फिरते थे,
सुना है आजकल सिर्फ कर कलह रहे हैं वो।
जुल्म और जुर्म में बताते थे जो कभी अंतर,
अब जुर्म कर रहे वो और जुल्म सह रहे हैं वो।