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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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जो हैं वही बन रहे हैं

जो हैं वही बन रहे हैं

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सुना होगा आप ने

ये शब्द योग

बहुत प्रचलित शब्द है

आप की विशिष्टता का

करते भी होंगे योग आप

सीखते भी होंगे आप

नम्रवत, समर्पित भाव से

विशिष्ट जनों से

अपने अपने गुरुओं से

योग से जीवन में

अप्राप्त को प्राप्त किया जा सकता है

और ये अप्राप्त भी शब्द ही है

मन की एक विशिष्ट स्थित

लेकिन हम लोग योग हैं

हर आदमी योग है

जाने कितने विषयों का

तत्वों का, भावों का

दृश्य का अदृश्य

जो है उसी के नाम की

क्रियाएं करते है

इतना ही कर सकते है

और यह सरल भी है

पर योग को समझना

अपने को समझना है

क्या हैं हम

इसी को जानना है।

मनुष्य के हालात आज तक यहीं है

और अगर इसे शब्द दें

सहजता से

तो तो गुरु तो हैं हमारे

गुरु में आस्था भी है हमारी

दीवानगी भी है

हमारी अपने गुरु के प्रति

पर गुरुत्व हमसे छूट गया है।


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