जन्मभूमि के कुसुम
जन्मभूमि के कुसुम
हम बिकने वाले कुसुम नहीं
जिसे मन आया मोल लिया
कुछ क्षण सूंघा सुरभि उड़ाई
कुछ कदम बढ़ा कर फेंक दिया।
सघन वनों में उगने वाले
कुसुम बड़े निराले हम हैं
हम दया किसी से नहीं मांगते
स्वयं पल्लवित हो जाते हैं।
स्वयं पल्लवित होने की क्षमता हमने पाई है
हम नहीं दया के पात्र तुम्हारे
हम नहीं अस्मिता अपनी हारे
हम कांटों में उगने वाले कुसुम बड़े निराले हैं।
हमको न माली तोड़ेगा
न माली हमको गूंथेगा
हमें क्लेश न इसका किंचित
क्योंकि मान हमारा डाली में सिंचित।
हम कभी नहीं मंदिर में चढ़ेंगे
कभी नहीं मुर्दे पर उड़ेंगे
कभी नहीं जयमाल बनेंगे
बस केवल डाली से गिरेंगे।
बस केवल डाली से गिरेंगे
फिर स
ीधे मिट्टी में मिलेंगे
मिल माटी में अंत करेंगे
पौधों को हरियाली देंगे।
कामना है, हों समर्पित, उस पौध पर
जिसने हमें संसार में पैदा किया
पैदा किया, पोषण किया, पालन किया
और बदले में नहीं किंचित लिया।
पाषाण से तो स्वयं हम जन्मे हुए हैं
फिर भला क्यूं चढ़े मंदिर में हम?
मूर्ति है पाषाण की तो क्या करें हम?
देवता जब शांत है तो क्यूं चढ़े हम?
क्या इसलिए कि प्रातः हम कूड़े में हों
या पाखंडियों के पाद के नीचे हों हम
या भक्त की ग्रीवा में गुंथा हार हों
जो क्षणों उपरांत मुझको फेंक देगा।
हम तो अपनी जन्मभूमि के कुसुम निराले
जंगल में खिलते, हम नहीं, किसी के पाले
नहीं हैं बिकते, नहीं किसी मंदिर में आते
जहां खिले हम, वहीं शान से मिट भी जाते।