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Kailash Jangra 'Banbhori' कैलाश जांगड़ा 'बनभौरी'

Classics

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Kailash Jangra 'Banbhori' कैलाश जांगड़ा 'बनभौरी'

Classics

जनकंटा विप्लव राग

जनकंटा विप्लव राग

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जीर्ण हो चुकी देह तेरी,

विप्लव का है सार यही।

ज़र्रे-ज़र्रे में सार हो,

ज्यों मम का पारावार हो।


समझ न कोष-अट्टालिका इसे,

है क्षुद्र प्लावन आतंक-भवन।

कोष इंद्री को कर वश अपने,

रुद्ध त्रस्त-नयन हटा अपने।


क्यों विप्लव-रव से

तू घबराता है,

जो जीवन गगन-स्पर्शी

अचल-सा सफ़ल बनाता है।


है सुख यही, हता कर

अपने घोर भय को,

है जीवन यही बस धर उर में

प्रेम-स्पर्धा-धीर को।


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