जनकंटा विप्लव राग
जनकंटा विप्लव राग
जीर्ण हो चुकी देह तेरी,
विप्लव का है सार यही।
ज़र्रे-ज़र्रे में सार हो,
ज्यों मम का पारावार हो।
समझ न कोष-अट्टालिका इसे,
है क्षुद्र प्लावन आतंक-भवन।
कोष इंद्री को कर वश अपने,
रुद्ध त्रस्त-नयन हटा अपने।
क्यों विप्लव-रव से
तू घबराता है,
जो जीवन गगन-स्पर्शी
अचल-सा सफ़ल बनाता है।
है सुख यही, हता कर
अपने घोर भय को,
है जीवन यही बस धर उर में
प्रेम-स्पर्धा-धीर को।
