‘जंगली’
‘जंगली’
मैं साथ प्रकृति के रहता था,
जंगल को घर मैं कहता था।
खुली हवा में ले उच्छवास,
झरनों सा कल कल बहता था।।
मैं देख गगन की हलचल से,
मौसम का हाल बताता था।
चातक पपीहा को देख देख,
बारिश की खबर सुनाता था।।
मैं सिँहों से अखाड़ा लड़ता था,
गजराज भी मुझसे डरता था।
सूरज चंदा धरती ही क्या,
तारों की गति को पढ़ता था।।
मेरी थी अपनी छोटी दुनिया,
छोटे से थे परिवार मेरे।
था मेरे जीवन में अनुशासन,
थे खुशियों से भरे त्योहार मेरे।।
फिर तुम आए,
मेरे जीवन में
‘सभ्य’, ‘यांत्रिक’
‘विज्ञान’ लिए,
पंचभूत को
काबू कर
‘उन्नत’ होने का
अभिमान लिए।।
दसों दिशाएं अंबर थी
अब सूट बूट में रहता हूं,
बिजली से करके चका चौंध
रातों को दिन अब कहता हूं।
मैं दौड़ रहा बस दौड़ रहा
मंजिल का नहीं ढिकाना है,
मैं बदहवास अब भूल गया,
वापस ‘घर’ भी तो जाना है।
अब मेरी बस्ती में ताले हैं,
हर घर में, हर अंतर्मन में,
उल्लास नहीं, करुणा भी नहीं,
सुकूं नहीं अब जीवन में।
मैं मिट्टी से रहता दूर हूं अब
जब कि मिट्टी हो जाना है,
मैं बना रहा यादें तमाम,
जब कि इक दिन खो जाना है।
काश कि ऐसा हो जाता,
तुम मुझमें रमते, कुछ मैं तुममें,
हाथ पकड़ चलते दोनों,
ले साथ प्रकृति को जीवन में।