जलती फसलें
जलती फसलें
नजर उठाकर देखा,
तो ज्वालायें धधक रही थीं।
कई मुरझाये चेहरों पर,
सिसकियाँ उभर रही थीं।
क्या अपराध है भगवन,
इन धरती के वीर सुपुत्रों का,
भयानक अग्नि के आगोश में,
जिनकी फसलें जल रही थीं।
हमनें तो अपना खून पसीना,
बहाकर खेतों को बीजा था।
समय समय पर इनको,
कितने अरमानों से सींचा था।
क्या यही सिला है भगवन,
मेरी सारी मेहनत का,
कैसे बतलाऊँ ये मंजर देख,
कैसे आँखों को मीचा था।