ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
हौसला ना आजमाइश अगर मंजूर होता।
बेबस लाचार ये जिंदगी ना मजबूर होता।।
कोई शिकवा ना शिक़ायत तेरे शहर को,
मेरा आशियाना कहीं तुझसे दूर होता।।
गमेहयात में मारा है जो मुझको अंधेरों ने,
काश तेरी नज़रों से ये नज़ारा नूर होता।।
हमें पिलाते रहे अश्कों से जहर का मंजर,
काफ़िला मिट जाता ना कुछ मंसूर होता।।
कहें कैसे कि रुखसत कर दिए मुझको ,
वरना आपका ,अपना आज कसूर होता।।
हौसला ना आजमाइश अगर मंजूर होता।
बेबस लाचार ये जिंदगी ना मजबूर होता।।
(मंजूर - स्वीकृति,मंसूर - विजयी,)
(नूर - प्रकाश,रुखसत - विदा)
