ज़िंदगी या शायद
ज़िंदगी या शायद


बच्चों संग प्रेम के
झूले झूलते
कभी समझाते
कभी डाँट ते
कभी चिल्लाते
और कभी रुला जाते।
ये ज़िंदगी के
खेल के शुरुआती पल
हम बस एसे ही
जीये जाते।
घूमते घूमाते
खाते खिलाते
बस बच्चों संग सिमट
सपने जज़्बात
अपनी आरज़ू
सब ख़्वाब।
ये ज़िंदगी हम
एसे ही जीये जाते
अधेड़ सी काया
जिस्म भी तो
सोनिया काम का नहीं
कोई आवाज़ लगा दो
ये पल मेरे आराम का नहीं।
मंज़िल की चौखट पर
बैठ ताने बाने गिन रहे
अपने रिश्तों के
अपने ख़्वाबों के
अपनी साँसों के।
वो पल ढूँढ रहे
बच्चे फुर्र
घर तन्हा
सामने लेटी
मेरी संगिनी।
पार कर गयी
वो चौखट
और मैं आज भी
ज़िंदगी के खेल।
जी रहा
यां शायद
झेल रहा।