जिन्दगी कुछ यूँ ही ...
जिन्दगी कुछ यूँ ही ...
जिन्दगी कुछ यूँ ही ...
चलती रही खिलखिलाती सी ,
मुस्कुराती सी ....
जीवन राह में फूल बिखराती सी ,
जीवन पथ की डगर पर ,
नये सपनों को उगाती सी ,
कैसे पैदा होता है नव-अंकुर ,
मिट्टी की नर्म गोद से ? यूँ ही ...
नई आशाओं , उमंगों से जीवन महकाती हुई सी ...
जिन्दगी कुछ यूँ ही ... है कभी थक हार बैठ ,
कही सूनी निगाहों से मंज़िलों को दूर से ....तकती हुई सी मन मे विषाद लिये ,
अवमानना से ग्रसित हो ,
हर दिन दूसरों पर गुर्राती हुई सी ....
भर कभी कर्तव्य भाव से , कभी
यूँ ही राह में ...... फैकें दूसरों के ,
मन -व्यसन के कूड़े को बीनती हुई थी ...
कहीं ..... कोहरे मे लिपटी खामोश
मगर अचल पहाड़ियों सी ,
कभी लहरों सी चचलं उछल -उछल
आ
ग़ोश मे आके समाने सी ,
जिन्दगी कुछ यूँ ही ... तो है ,
साईकिल के दो पहियों सी ... सुर-ताल में ,
जिन्दगी के सफ़र में सन्तुलन से आगे बढ़ती सी ,
जिन्दगी इक लय है .... इक रिदम में समायी हुई सी ....
हौसलों से आगे ही आगे जीतने की राह पे बढती हुई सी ...
फूलो सी मुस्कुरा , कई रगों से बहार ला ..
जीवन की धुन पर कठोर पलो में भी मुस्कुरा दे
जिन्दगीं कुछ यूँ ही ..... तो है ,
मासूम बच्चे की जैसे अनजान बेफ़िक्री में किलकारियाँ मारती हुई सी ,
किसी नवयौवना की आंखो मे भरे ...मासूम इन्द्रधनुषी ख़्वाबों सी ,
कहीं कशमाकश ,कही सधे पैरो पे चलती सी जिन्दगी ,
जिन्दगी कुछ यूँ ही .... देख के ये सारी दुनियादारी फिर से ...
इक नई कविता रचती रही !!