जिन्दगी की रेत
जिन्दगी की रेत


जिन्दगी बीते लम्हों में गुजरती चली गई,
ख़्वाहिशें रेत की तरह फिसलती चली गई।
वक्त ने हमेशा ही साथ छोड़ा बेवजह मेरा,
मैं हर दुःख से फिर भी उबरती चली गई।
शुक्र हैं कि मुस्कान ने कभी साथ न छोड़ा मेरा,
मैं हर रोज़ और भी ज्यादा निखरती चली गई।
हर कदम पर मुश्किलें मुकम्मल ही मिली मुझे,
हादसों से बाल-बाल ही मैं बचती चली गई।
अंजलि में समेटना चाहा जब भी ख़ुशियों को,
हाथ से एक-एक कण फिर बिखरती चली गई।
समन्दर सा हृदय ख़ुदा ने बख्शा भी हैं मुझे,
बड़ी हिम्मत से वक्त से निपटती चली गई ।
मिले कभी ख़ुदा तो शुक्रिया करूँ मैं उनका,
दिया हुनर कि अपनी दासतां मैं लिखती चली गई।
मैं हूँ क्योंकि मैं लिखती हूँ खुद को ईमानदारी से,
हर इम्तिहान में मैं अव्वल निकलती चली गई।