दो जून की रोटी
दो जून की रोटी
माना कि फूस का छप्पर है, और रोटी नहीं पेट भर है।
दो जून की रोटी कभी- कभी ही, होती हमें मयस्सर है।
फिर भी हम भूल के सारे ग़म, खुशियाँ भरपूर मनाते हैं।
पेड़ों पे झूला डाल के, सावन की मल्हारें गाते हैं।
माना साधन सम्पन्न नहीं हैं, हमको विपन्नता ने पाला है
हम तूफानों से खेले हैं, माटी ने हमें संभाला है।
ओ महलों में रहने वालों, तुम क्या जानो उन खुशियों को।
भूखे रहकर भी खुश रहते हम, देख के सबकी खुशियों को।
धन दौलत का भण्डार तुम्हारे पास, मगर दिल मिला नहीं।
गैरों का दुख दर्द बाँटना ,तुमने सीखा नहीं कभी।
झोंपड़ियों में रहकर भी, तुमसे कहीं अधिक अमीर हैं हम।
औरों के सुख में सुखी हुए, कम करते रहे सभी के ग़म।
हम धूमधाम से मिल-जुलकर सारे त्यौहार मनाते हैं।
दुख दर्द सभी सांझा करके खुशियाँ भरपूर मनाते हैं।
