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मार जाती है

मार जाती है

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चेहरे की मासूमियत मार जाती है

आज के वक़्त में

इंसान को इंसानियत मार जाती है।

सांस लेता तो है

लेकिन सांसों की गिनाई मार जाती

आर जाती है, पार जाती है

ये ज़िन्दगी है

जीने की वजह मार जाती है।

नए कपड़ों की

गरीब को सिलाई मार जाती है

भूखे को

रोटी की गोलाई मार जाती है

ढलते चिराग को

दियासलाई की आस मार जाती है

हीर जाए तो

रांझे को जुदाई मार जाती है

यहाँ इंसान को इंसानियत मार जाती है।

गागर बनती तो है

बनानेवाले को उसकी ढलाई मार जाती है

घुन घर बसाता तो है

लालच में गेंहूँ की पिसाई मार जाती है

फ़ौलाद सख्त होता तो है

लेकिन लोहार को ढलाई मार जाती है।

सच तो सब जानते हैं

लिखनेवाले को उसकी लिखाई मार जाती है।

आज के वक़्त में 

इंसान को इंसानियत मार जाती है।


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