अनुकृति
अनुकृति
प्रकृति की अप्रतिम छवि ,
देखता जब मानस मराल।
रूप गुण के सन्तुलन को ,
निरख मन होता निहाल।
चित्रकर्मी तो अनुकृति से ,
बस यही करता सवाल।
शाश्वत तुम्हारा यह रूप है ,
या तूलिका का है कमाल।
चिर प्रतीक्षित स्वप्न अब ,
साकार सा होने लगा है।
अज्ञात रचना का विषय
स्पष्ट अब होने लगा है।
अनगिनत रंग तूलिका से
चित्र तक आये अभी तक।
पर पूर्णता आयी न उनमें ,
व्यर्थ हुए अंदाज वे सब।
कौन कब आये इधर ,
बैरी बनी है आज निद्रा।
दौड़ते कितने भ्र्मर अब,
देखकर आहवान मुद्रा।