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Bhavna Thaker

Abstract

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Bhavna Thaker

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ज़िंदगी का सौदा

ज़िंदगी का सौदा

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मासूम पारदर्शी ज़िंदगी का सौदा होता है बेहलचल सी मौन की मार जैसी मौत से।

 

धूप के शहर की आख़री ट्रेन रात की कालिख़ से मोहब्बत करती हो जैसे, आत्मा के आलम्बन ढूँढने पर ढलता है जीवन एक दृग की तरफ़.! 


काश की वो लय टूट जाए, क्यूँ लकीरें बंदीशों में बँधी होती है, ज़िंदगी रेत सी फिसल जाती है.! 


मन बेमन से थक कर अनंत की गोद खोज लेता है एक महफ़िल सा सजा तन वक्त के हाथों प्रताड़ित धीरे-धीरे खंडहर में बदलता सिमटकर ढ़ह जाता है.!


"वक्त के पाँव किस ठौर टिकते है" 

हृदय चंगा रहे तो किडनी ड़गमगाती है कभी विषैला कैंसर हडप लेता है तन की ज़मीन, 


जतन मांगते पनपते रोग को सहलाते ज़िंदगी के स्टेशन पर आख़री ट्रेन का इंतज़ार कष्ट दायक होता है.! 


छलावे से मन को, एहसास को एक आस के मुंडेर पर बिठाकर सहेज लो, चेतना के संचार को क्षुब्ध ना होने दो पर ज़िंदगी की किताब को एक दिन समाप्त होना होता है कहाँ पूरा पढ़ पाते है.!


आवागमन के मुसाफिरों का मजमा उमड़ता है रंगमंच पर कोई देख लेता है फिल्म पूरी, तो किसीकी ट्रेन इंटरवल होते ही आ धमकती है ज़िंदगी के स्टेशन पर,


 "आख़री समय विषाद भरा कटोरा है" विपदा ये ठहरी कोई नहीं जाना चाहता ट्रेन की मौन सीटी जब बजती है, साँसे साथ छोड़ती है.!


रंग-बिरंगी ज़िंदगी की मरीचिका संमोहना बढ़ाती है मन के मृग दौड़ते है उस मोह के झिलमिलाते जल को छूने.!


फितरत-ए-इंसान की प्यास कहती है मुझे और जीना है पर ज़िंदगी मौत से किया सौदा अपना बर लाती है।।


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