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MS Mughal

Abstract

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MS Mughal

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ज़िंदगी जीने का मज़ा

ज़िंदगी जीने का मज़ा

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356

याद बागिरिद बा दस्ताह हयातन शाद बाशद वगरना हैच इंतेकामी नमी उफ्ताद ज़ज़ ए गम ए जिंदगान शाद

( अपने हाथ ओर हाल में जो कुछ भी है उसी से खुश रहिए वरना जिंदगी जीने का मज़ा नहीं गम ही मिलेगा ) 


नाज़रीन ए मोहतरम यह बात तब की है जब हम और हमारे एक अज़ीज़ ईरान के एक शहर अबरकूह में एक जगह का पता भूल कर भटक गए थे तब हम जगह का पता पूछते पूछते एक आमिल ( ज्योतिष ) की खरीदा कुनिन्द ( शॉप दुकान ) पर पहुंच गए 

जहा पर लिखा हुआ था की आप के पास सिर्फ 50 रियाल है तो आप अपने बदलते मुक्कदर से ज्यादा दूर नहीं ता हम हमारे अज़ीज़ इस इस्तेहार को देख कर काफी खुश हुए और वोह अपनी काम ए तरक्की को लेकर अक्सर परेशान हाल में रहते जिसका शबब उन्हे यह हुआ की आमिल ( ज्योतिष ) के पास बा मुलाकात जाया जाए 

ता हम वोह जबरदस्ती हमे लेकर अंदर आए हम दोनों सीढ़िया चढ़ कर उप्पर पहुंच गए जहा एक छोटा सा कमरा था जिसकी चारो तरफ दीवारों पर दस्त ए नख्ल ( हाथ की हथेलियों ) की तस्वीर लगी हुई थी 

कमरे के आईन दरमियान एक मेज़ रखी हुई थी मेज़ पर शमाअ जल रही थी और दस्ते टेक लेकर उस मेज़ पर एक बूढ़ा आमिल झुका हुआ था ओर नाज़रीन ए गिरामी कमरा पूरी तरह से खामोश था मुझे कमरे में एक अलग तरह की पुरीसराइयत महसूस होने लगी मानो तस्वीरों में से कोई हमे देख रहा हो 

ता हम हम ऐसे ही सेहमी अंदाज ओ कंप कपी में खड़े थे और बूढ़ा आमिल अपनी वही बा दस्तूर अदा से झुका हुआ ओर जब हम दोनो एक दूसरे को देख देख कर थक गए और जाने लगे तो बूढ़ा आमिल बा दस्तूर झुकी अदा ओ अंदाज़ में कह उठा की आप दोनो मेज़ पर 50 रियाल रख दो हम दोनो के मूंह से हंसी निकल गई क्यों की पिछले 45 min से पूरे कमरे की यह पहली आवाज़ थी 

वोह ऐसा गूंगा बहरा कमरा था जिसके दरीचे तक बे आवाज़ हवा से हिल रहे थे 

हमे महसूस हुआ की अब वोह आमिल हमारी तरफ देखेगा लेकिन वोह दोबारा बोला की मेज़ पर 50 रियाल रखो 

मेने फौरन जेब से 100 रियाल का नोट निकाला और मेज़ पर रख दिया 

उसने नोट की तरफ देखे बिना ही कह दिया की सिर्फ 50 रियाल 

हम घबरा कर जेब टटोल कर 50 रियाल मेज़ पर रख दिए 

बूढ़ा आमिल अपने बा दस्तूर झुकी अदा ओ से उठ खड़ा हुआ और जब हमने उसे देखा उसके चेहरे की ओर अल्लाह अल्लाह 

हम उसका चेहरा देख कर हैरान ओ परेशान हो गए 

उसके चेहरे पर सद हजारां ( हजारों ) झुर्रियां थी 

ओर यह झुर्रियां हड्डियों के साथ लटक रही थी और जब वोह कुछ बोलता था तो यह झुर्रियां उसके बा अल्फाज़ हिलती थी 

हम दोनो उनके सामने आकर खड़े हो गए 

ओर हमारे अज़ीज़ अपने दस्त उनकी मेज़ पर रख कर कहने लगे की आमिल साहब मेरी दस्त ए लकीर देखिए और फरोश ए तरक्की का कोई रास्ता बताए 

आमिल साहब ने केहका लगाया और अपने पास पड़े एक पान दान से पान निकाला और मूंह में रख लिया 

ओर वोह बात केह दी जिसके सुनते ही मेरी जिंदगी का रुख बदल गया येह वोह सच वोह हकीकत है जिसे लोग बरसो से तलाश करते है लेकिन मुझे यह हकीकत मिली कहा ईरान के एक शहर अबरकूह की एक गुमनाम गली के दूसरी मंज़िल पर बने एक छोटे से कमरे में एक 90 साल के आमिल के पास नाज़रीन ए गिरामी इल्म भी रिज्क की तरह मिलता है दस्त ब दस्त लब ब लब होकर किसी को भी कही भी मिल जाता है 

अज़ीज़ ए ख्वातीन ओ हजरात 

वोह बूढ़ा आमिल हमारे अज़ीज़ का दस्त अपने बा दस्त में पकड़ कर कहने लगा के में पिछले 60 साल से में यह काम कर रहा हु मुझे हर 6 लोगो में से एक कहता है की धंधा रोजगार सही नही कोई कहता है की मनपसंद शादी कोई कहता है की जायदाद कोई कहता है की बे औलाद तो कोई कहता है की मेरे दुश्मन मर जाए तो कोई कहता की बे शुमार दौलत

आज तक जितने भी आए सब ने यही पूछा आज तक किसी ने यह नहीं कहा के क्या यह सब मुझे मिलेगा तो में खुश रह पाऊंगा क्या इन सब चीजों से मुझे खुशी फराहम होगी 

वोह रुका उसने पान थूका फौरन दूसरा पान खाया और बोला की 

गर चे अगर कोई 10 रियाल से खुश नहीं वोह भला सद हजार रियालो से क्या खुश होगा 

ओर कहा की कपड़ा पोशाक मकसद नहीं होता मकसद तन को ढकना होता है

खाना मकसद नहीं होता भूख मिटाना मकसद होता है 

उसने फिर केहका लगाया और कहा की 

हमे खुशी को पहली तर्ज़ी देनी चाहिए

ओर कहा की मेने ऐसे हजारों लोग देखे है जो बेशुमार दौलत के मालिक है लेकिन खुश नहीं 

कोई अपनी औलाद से खुश नहीं तो कोई जमीन के झगड़े से खुश नहीं तो कोई दुश्मनी से 

ओर दुनिया के बेहतरीन खूबसूरत जोड़ों को लड़ते देखा है 

ओर इंसान को यह सब चीजें खुशी नही देती खुशी एक फन होता है जो अपने आप इंसान में आता है इस फन को तलाश करो जो आपके दस्त में जितना है उससे ही आप को खुश रखने पर मजबूर कर देगा।

10 रियाल से खुश नहीं वोह हजारों रियाल से खुश नहीं हो सकता जो इंसान रोटी के एक निवाले से खुश नहीं वोह भर पेट खाने से खुश नहीं हो सकता जो इंसान मस्जिद मन्दिर चर्च के दरवाज़े पर खड़े होकर नही मुस्कुरा सकता तो ता उम्र की इबादत से वोह कैसे खुश रह सकता है 

वोह बोलते बोलते रुक गया 

ओर मेने कहा की क्या खुद की खुशी खुदगर्ज़ी नही होती तो फौरन उसने कहा की नहीं

आम आदमी के लिए नहीं 

ओर कहा की हम ना तो रूहानी दिल वाले है न तो रूहानी अक्ल वाले सूफ़ी ओर कहा की सूफी वोह होता है जो दूसरों को खुश रख कर खुद खुश होता है 

जब की आम आदमी खुद खुश होकर दूसरो को खुश करता है और कहा की 

याद बागिरिद बा दस्ताह हयातन शाद  

बाशद वगरना हैच इंतेकामी नमी 

उफ्ताद ज़ज़ ए गम ए जिंदगान शाद

( अपने हाथ ओर हाल में जो कुछ भी है उसी से खुश रहिए वरना जिंदगी जीने का मज़ा नहीं गम ही मिलेगा ) ओर हम वहा से एक इल्म लेकर निकल गए ।



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