नस्री नज़्म डर
नस्री नज़्म डर


वीराना सर्द रात का दहक उठा था
सर्द हवाओं का झुमट अंधेरी रात में
दरख़्तों के सूखे पत्तों को अपनी आगोश में
लिए उड़ रहा था
वोह सर्द हवाओं की सिसकियाँ
किसी दर्द आमेज़ ग़ज़ल की मानिंद
परिंदों पर अपना असर कर रही थी
वही परिंदे जो अपने पंख फैलाए दूर दराज़
पर्वतों पर उड़ते रहते थे
हर तरफ़ ख़ामोशी इस बज़्म ए दहशत को
और खौफनाक बनाए रखना चाहती थी
लेकिन भूले भटके बज़्म ए दहशत में
सुबह के सूरज की आमद हुई और
परिंदे बार ए दहशत से बाहर निकल कर
अपने अपने कार ए सर अंजामी को निकल गए थे
वोह अपने पंखों को फै
ला कर वही दूर दराज़
पर्वतों पर गश्त लगाने लगे थे
सर्द रात की दहशत के बाद हर तरफ़ खुशी का
माहोल छाया हुआ था लेकिन,
बीच जंगल में कहीं से किसी शिकारी गिरोह
की नज़रें उन उड़ते चहकते परिंदों पर पड़ी ही थी कि
परिंदों ने खामोशी इख्तियार ली और अपने पंखों को
फैला कर एक ज़ोरदार झटका दे कर
बादलों में जा उड़े उनकी ये हवाओं में परवाज़
इतनी ऊंची थी के शिकारियों के तीर कमान
उन तक पहुंचने से पहले ही ज़ेर ए ख़ाक हो जाते थे
यही जंगल का निज़ाम है जो चलता रहता हैं
यही चीज़ें इंसान के लिए बाइस ए इबरत हैं
कि इंसान इन से कुछ सीखें।