ज़िंदा रखो
ज़िंदा रखो
पिता ने नौकरी कर लौटे बेटे से पूछा,
"बता, अगर इस दुनिया से कुछ एक मिटाना हो,
तो किसे मिटाएगा?"
बेटा बोला,
"पिताजी, प्यार को।"
उसके थके शब्द सुन पिता चौंके, बोले,
"वह तो जीवन का आधार है,
सृष्टि का कारण,
राधा-कृष्ण की लीला, मीरा की आराधना,
फिर उसे मिटाना क्यों?"
बेटा फीका सा मुस्कुराया -
"पिताजी, आपने जो सिखाया -
वह प्यार अब केवल किताबों में है,
अब जो 'प्यार' है, वह झूठ की छाया में पलता है।"
"अब प्यार शब्द नहीं, शस्त्र है,
जो छल करता है, मोह में बाँधता है,
सच्चाई का मुखौटा पहनकर
मन की गहराई में विष घोलता है।"
"अब प्यार समर्पण नहीं है,
यह बन चुका है स्वार्थ का व्यापार,
जहाँ भावनाएँ बेची जाती हैं,
और रिश्ते छूट पर बिकते हैं।"
"यह अब झूठ में छिपता है,
'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ' - कहते हुए
आँखें किसी और को देखती हैं,
दिल किसी और के लिए धड़कता है।"
"और पिताजी, सिर्फ प्यार ही नहीं -
अब तो हर बड़ी बात में,
हर ऊँचे शब्द में, हर चमकदार वाक्य में -
सच्चाई के पीछे झूठ खड़ा है।"
"ईमानदारी - अब एक रणनीति है,
त्याग - एक दिखावा है,
सहनशीलता - एक मजबूरी है,
और प्यार... सिर्फ एक भ्रम।"
"प्यार अब आत्मविचार में जीवित रहता है,
पर वही विचार जब किसी और में दिखाई देता है -
वह नफरत में बदल जाता है।
प्यार एक समुदाय में श्रद्धा है,
पर वही भावना जब दूसरे समुदाय में हो —
तो हम उसे खतरा समझते हैं।
धर्म, देश, जाति, रंग - जब अपने होते हैं,
हम प्यार को अपना लेते हैं,
और अगर वही हमारे ‘अपने’ के साथ न हो,
वह नफरत बन जाता है।"
"कहीं उत्सव में जाते हैं तो, प्यार करने वालों की बजाय नफरत करने वालों पे नज़रें टिकी रहती हैं।"
"पिताजी, यह प्यार अब मर चुका है,
काश! कोई आदम और हव्वा फिर से उसे जन्म दें।"
पिता अब मौन थे।
उनकी आँखों में वह पीढ़ियों का अनुभव था,
जिसने बहुत कुछ देखा था -
पर यह कड़वा सच पहली बार सुना।
फिर भी, उन्होंने बेटे की पीठ थपथपाई -
और बोले:
"तू सही कह रहा है,
पर तू ही जी ले-
एक ऐसा प्यार जो झूठ से हो मुक्त,
जो सच्चाई की रोशनी में जन्मे,
और त्याग में जीवित रहे।"
"हो सकता है कि कोई नहीं समझे तेरे प्यार को,
फिर भी तुझमें ज़िंदा तो रहेगा वो।"
