जीवन का सार
जीवन का सार
व्यर्थ ही जीवन बीत गया, कर न सका कुछ भी उपकार।
बुद्धि ने सिर्फ संसार ही जाना, करता रहा सपने साकार।।
अंतर्मन को चोरों ने लूटा, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।
कर लिया सभी इंद्रियों को वश में, मेरा न उन पर कोई अधिकार।।
भूल बैठा मूल उद्देश्यों को, कुवासनाओं का बना आहार।
आधुनिक विकास और तरक्की ने, दूर कर दिया मेरा परिवार।।
यशोलिप्सा में ऐसा डूबा, करता रहा गलती बारम्बार।
दुःखादि द्वन्दरूप के कारण, जीवन में छाया अंधकार।।
नाशवान संसार को ही अपनाया, माया के आवरण ने लिया आकार।
मृत्युभय अविद्या की जननी, अभिमान सभी दु:खों का आधार।।
अगर चाहता निवृत्ति इनसे, कर ले कुछ सेवा और सत्कार।
अवगाहन कर ले सुमन सरोवर में, जो हैं ईश्वर के अवतार।।
चैतन्यता अंतर्मन की जग उठेगी, गुरु ही हैं तेरे खेवनहार।
" नीरज" गुरु चरणों में अनुरक्त हो जा, यही है "जीवन का सार"।।
