प्रकृति और प्रलय (काठमांडू)
प्रकृति और प्रलय (काठमांडू)
काठमांडू का ये सफर,
कहा न जाए कितना मधुर,
लंबी सी थी एक डगर,
साथ साथ थी एक नहर,
मैं दुनिया से बेखबर,
समझ रहा था हर मंज़र।
सामने देखा हिमालय पर्वत,
नीचे गिरता झरना कल कल,
चमत्कार ये किसका सुंदर,
सोच रहा था मैं यह पल पल।
देखी मैंने एक सभ्यता,
सुंदर अद्भुत मंदिर देखा,
बुद्धा स्तूपा और मंदिर को,
इस प्रकृति से छोटा देखा।
और यह भी देखा मैंने कि
प्रकृति में भेद नहीं कहीं,
जब धरती कांपी पर्वत की,
प्रलय था फैला सभी कहीं।
प्रलय ने ना मंदिर छोड़ा,
ना बुद्धा का स्तूपा छोड़ा,
ना महल रहे, ना दरबार बचे,
ना किसी गरीब का घर छोड़ा।
मां ने जब भेद नहीं समझा,
ना प्रलय में ना ही पोषण में,
क्यों हम इंसान फिर भेद करें,
इस दुनिया के सब लोगों में।।
