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संजय असवाल "नूतन"

Abstract

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संजय असवाल "नूतन"

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जिद्दी

जिद्दी

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वो कहां किसी का कहना मानता है 

बस जिद्दी बना घूमता है,

खुद से उखड़ा उखड़ा हरदम रूठा रहता है

बात बात पर अपना आपा खो देता है,

चीजे यहां वहां पटक कर

उन्हे तोड़ता है

कभी दीवार पर दे मारता

कभी खुद रोने लगता है,

झूठ पे झूठ बोलने लगा है

हर वक्त झल्लाया रहता है

कह दो उससे कुछ अगर

बस "ना" ही निकलेगा मुंह से उसके

समझाने की लाख कोशिश करो

तो मुंह सबसे मोड़ लेता है,

ढीठपना सर पर उसके 

सवार होता जा रहा है

वो स्वभाव का जिद्दी होता जा रहा है,

वो अब किसी के कहने सुनने में नहीं आता है

ना किसी की सुनता है

बस अपनी मन की करता है,

समय बर्बाद करना

किताबों से दूर भागना

सारा दिन मोबाइल में लगा रहना 

बात बात पर झगड़ना 

जोर से चिल्लाना

ये ही उसको भाता है,

अच्छी सीख भी उसे अब बुरी लगती है

देख सुनकर भी अनसुनी सी लगती है,

कितना भी समझा लो 

कितना प्यार उड़ेल लो

डांट डपट लो 

धमका लो

उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता है,

उसे तो बस मनमानी करनी है

अपने दिल की करनी है

चाहे नुकसान उसका खुद का हो

उसे कोई चिंता नहीं इसकी,

अपने ज़िद्दीपन का नुकसान

देर सबेर उसे उठाना होगा

अगर नहीं संभला वक्त से

भविष्य उसका स्याह( गहरा) होगा,

आदतें बिगाड़ती भी हैं

और संवारती भी हैं

ये उसे तय करना है,

क्या अपनाएं

किसे छोड़े,

जिंदगी उसकी है

जिंदगी का रुख उसे तय करना है।



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