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Sanjay Aswal

Abstract

4.3  

Sanjay Aswal

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जिद्दी

जिद्दी

1 min
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वो कहां किसी का काह मानता है 

बस जिद्दी बना घूमता है,

खुद से उखड़ा उखड़ा 

हरदम रूठा रहता है,

बात बात पर अपना आपा खो देता है

चीजे यहां वहां पटक कर

उन्हे तोड़ देता है।

कभी दीवार पर दे मारता

कभी खुद रोने लगता है,

हर वक्त झल्लाया सा

झूठ पे झूठ बोलने लगता है,

कह दो उससे कुछ अगर

बस "ना" ही मुंह से

उसके निकलता है।

समझाने की 

लाख कोशिश करो

तो मुंह सबसे मोड़ लेता है,

ढीठपना सर पर उसके 

हरदम सवार रहता है।

वो स्वभाव से

जिद्दी होता जा रहा है,

वो अब कहां किसी के 

कहने सुनने में आता है,

ना किसी की सुनता है

बस अपनी मन की करता है,

हरदम रूठा रूठा 

खामोश बैठा रहता है।

समय गंवाना

किताबों से दूर भाग जाना,

सारा दिन मोबाइल में 

बस बैठे सर खपाना,

बात बात पर झगड़ना 

जोर से चिल्लाना,

ये उसकी बातों का किस्सा हो गया है

जिद्दीपना अब उसकी आदतों का 

एक हिस्सा हो गया है ।

अच्छी सीख भी उसे 

अब बुरी लगती है,

देख सुनकर भी 

उसे अनसुनी सी लगती है,

कितना भी समझा लो 

कितना प्यार उड़ेल लो,

डांट डपट लो धमका लो

उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता है,

बैठा बस ढीट बना रहता है।

उसे तो बस मनमानी करनी है

अपने दिल की करनी है

चाहे नुकसान उसका खुद का हो

उसे कोई चिंता नहीं इसकी,

अपने ज़िद्दीपन का नुकसान

देर सबेर उसे उठाना होगा

अगर नहीं संभला वक्त से

भविष्य उसका स्याह( गहरा) होगा,

आदतें बिगाड़ती भी हैं

और संवारती भी हैं

ये उसे तय करना है,

क्या अपनाएं किसे छोड़े,

जिंदगी उसकी है

जिंदगी का रुख उसे तय करना है।



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