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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

झुकना

झुकना

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किसी का झुकना उसकी कमजोरी नहीं होती है

उपवन की डाली झुकने से वो छोटी नहीं होती है

यह तो दुनिया मे हमारी ग़लतफ़हमी साखी,

सजदा करने से कोई इबादत कम नहीं होती है


झुकना तो किसी का भी नम्र होने का स्वभाव है,

झुकने से तो बन जाता बिगड़ा हुआ हर काम है,

मित्रवत व्यवहार से पत्थर में जिंदा होती तस्वीर है

झुकने से रिश्तों में आती नई किरणों की रोशनी है


पर वहां पर झुकना बिल्कुल गलत होता है,साखी

जहां पर हमारे स्वाभिमान पर कोई चोट होती है

झुके इतना ही जितना सामनेवाला लायक है,साखी

उम्मीद से ज्यादा झुकने से भी सर पे धूल होती है


सामनेवाला हीरा हो तो झुकने में शर्म नहीं होती है

किसी का झुकना उसकी कमजोरी नहीं होती है

झुकने से तो फ़लक की छाया सर पर होती है

झुकने से बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया सर पे होती है।



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