"झरते पत्तों की वेदना "
"झरते पत्तों की वेदना "
ड़ाल से विछुड़ कर, पत्ता बहुत रोया था
उसने अपना घर और ठिकाना खोया था
शाख पर लगे पत्ते, उसके अपने ही थे
शाख पर बैठे पंछी, उसके साथी ही थे
घर से दूर होकर भला कौन दुखी न होगा
अपनों से बिछड़ कर भला कौन सुखी होगा
शाख से जैसे ही कोई पत्ता गिरता है
पास वाला पत्ता भय से कांप उठता है
न जाने अब किसकी बारी है
ड़ाल से बिछड़ने की तैयारी है
शाख से गिर कर, पत्ते दुखी हो जाते हैं
शाख पर बिताये,अच्छे दिन याद आते हैं
शाख पर, हवा संग सरसराते थे
एक दूजे को, खूब धकियाते थे
खूब हंसते थे, खिलखिलाते थे
गिलहरी की ,लुकाछुपी देखते
थे
सुबह का इंतजार करते थे
चिड़िया की चहक सुनते थे
गिरते ही जीवन रुक गया
जीवन से बसंत चुक गया
गुमसुम पड़े, पत्तों की वेदना,
कोई न जान पाता है
हर व्यक्ति,आते जाते
रोंद कर ,चला जाता है
धरा पर बिखरे पत्ते
हवा संग, यहाँ वहाँ उड जाते हैं
अपना दर्द दिल में लिए
मिट्टी में,दफ़न हो जाते हैं
पेड़ पर,नई कोंपलों के साथ
नव ,जीवन शुरू हो जाता है
सृष्टि का क्रम साल दर साल
निरंतर यूँ ही चलता रहता है।