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Madhur Dwivedi

Abstract

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Madhur Dwivedi

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जेल

जेल

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खामोश हो चुका हूँ अब,

कुछ कहते नहीं बनता  

लोगों के तिश्ने और ताने

अब सहते नहीं बनता  


सुनाई देते हैं उसके कहकहे बस,

पागल कर देते हैं,

कुछ सुनते,

कुछ देखते नहीं बनता  


एक आग सी महसूस होती है

ज़हन में हरदम,

पीती है ख्वाहिशों को

तेल की तरह  


एहसास दिलाती है हरदम,

ये दुनिया है एक जेल की तरह।  


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