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Madhur Dwivedi

Abstract

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Madhur Dwivedi

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दिल्ली

दिल्ली

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क्या करें कि अब कोई राह नज़र नहीं आती,

धूप और धुएँ का गुबार हर तरफ है,

छाँव भर नज़र नहीं आती,

साँसे देते थे जो दरख्त,

उन्हें कब का काट दिया हमने,

अब घुट घुट के जी रहे हैं,

मौत बर नहीं आती ।

सुना था कभी कि दिल्ली का अपना दिल है,

लेकिन आज कहीं धड़कन नज़र नहीं आती ।



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