इश्क़ पे चर्चा
इश्क़ पे चर्चा
मैंने इश्क़ को शायद समझा ही नहीं,
इसी लिए मैं इसे सरेआम बदनाम करते फिरती हूँ,
मैंने इश्क़ को क़ाबिल समझा ही नहीं,
और अब मैं इसे नाकारा कहते फिरती हूँ।
मैंने इश्क़ के मंसूबों को तवज्जो दी ही नहीं,
और अब मैं इससे वास्ता रखने से डरती हूँ,
ज़माना इश्क़ का मोहताज है आज भी,
पर मैं इसकी क़ीमत चुकाने से डरती हूँ।
रुख़सत हूँ आज मैं तेरी गलियों से,
क्यूं की फिर से तुझ पर ऐतबार नहीं होता,
तू किताबों और ख़यालो मैं ही अच्छी लगती है,
तेरे होने पे मुझे भरोसा नहीं होता।
तूने मेरे सपनों को परवाज़ तो दी,
पर उसे दूर तक जाने की मोहलत ना दी,
तूने मुझे तजुर्बा तो दिया,
मगर खुश रहने की इजाज़त ना दी।
एक रोज़ रूबरू होंगे तुझसे इश्क़,
और तब तुझे मेरी सारे सवालों का जवाब देना होगा,
क्यूं तू मुझसे ख़फ़ा रही?
क्यूं तेरी तल्खियां हमेशा मुझपे हावी रही ?