इन्सान
इन्सान
इच्छाओं के वशीभूत जब हो जाता है इन्सान
तो भटक जाता है उसका भी ईमान।
विवेक सुप्त हो जाता है, जाग जाता है शैतान
फिर बन जाता है आदमी, एक विस्फोटक सामान !
सजीव से निर्जीव में, उसका ये परिवर्तन !
करने लगता है सबकी, भावनाओं का मर्दन !
एक दूसरे से आहत, फिर होने लगता है इन्सान !
स्वत: विलुप्त होने लगता है, इन्सानियत का जहान !
रिश्तों से मर्यादा का भाव चला जाता है,
घर बनकर रह जाता है, ईंट पत्थर का मकान !
ऐसे माहौल में पला बचपन मासूमियत खो देता है !
युवावस्था में आक्रोश के बीज वो देता है !
आक्रामक व्यवहार फिर सबको दुखी करता है
हर आदमी फिर जीते जी रोज-रोज थोड़ा मरता है !
