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इन लहजों ने कुछ तो छिपा रखा

इन लहजों ने कुछ तो छिपा रखा

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इन लहजों ने कुछ तो छिपा रखा है

कहीं आँधी कहीं तूफाँ उठा रखा है।


आँखों के दरीचे में काश्मीर दिखे है

हर अँगड़ाई में बहार बिछा रखा है।


हुस्न का मजाल तो अब समझ में आया

दिल्ली कभी पंजाब जगा रखा है।


तुम्हारे नाम की जिरह शुरू हुई जैसे ही

दोनों सदनों ने हंगामा मचा रखा है।


जिस्म कहीं और शुमार होता ही नहीं

तूने सचमुच खुदा ही दिखा रखा है।


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