ईश्क को जिस्म लिखते हो
ईश्क को जिस्म लिखते हो
ईश्क को जिस्म लिखते हो
जाओ जाओ मियां बड़े नापाक फितरत हो
लम्हों के तहज़ीब को गुस्ताख़ी कहते हो
मियां सैलाबों में तुम भी फसे लगते हो
मसरूफ़ नहीं खुद में भी एक पल
मियां तुम तो अपने ही मुजरिम लगते हो
धो लो चेहरे कई बार पर
जमाल_ए_निगाह बताती है तुम रोए लगते हो
खून टपक रहे पानी बन बदन से तुम्हारे
मियां तुम तो मरे लगते हो
कितनी दफा खंजर चुभोया तुमने
ज़र्रे ज़र्रे से घायल दिखते हों
अब तो बता दो माजरा क्या है
मियां तुम कब्र से क्या कहते हो।

