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D Avinasi

Abstract

4  

D Avinasi

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ईर्ष्या भाव का त्याग

ईर्ष्या भाव का त्याग

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आओ ईर्ष्या त्यागे मन से, प्रेम सौहार्द की बात करें।              

जिससे जीवन सुखमय बीते, ना थोथे संवाद करे।।              

सदियों से अपनाया जिसने, हुआ भला ना खुद देखे।।               

गये रसातल उबर न पाए, ब्योरा पोथिन में लेखें।।                 

आधि व्याधि जीवन भर साले, बढ़ती जायें चैन हरे। आओ ईर्ष्या..1    

योगी भोगी आदि धरा में, शीश पकड़ करके रोये।               

त्रासित हो होकर के मर जायें।  प्रकट काल पर ही होये।।        

जिसके हों परिणाम भयानक, अनुष्ठान कुछ नहीं करें। आओ ईर्ष्या..2    

अनुष्ठान के गुण होये पर, जस चाहे तस ना होये।।             

बाधित बुद्धि तभी हो जाती, मिले वहीं जी हों बोये।।   ‌           

ईर्ष्या सब बैरियों से न्यारी, आ जाती वो हरे हरे। आओ ईर्ष्या...3             

कोई दोस्त पास ना फटके, दूर दूर ही रहे सभी।                  

 हों घातक परिणाम देख लें, सम्हाल न पाए कोई कभी।।             

मन भी शनै शनै विचलित हो, समझ न पाये कैसे करे। आओ ईर्ष्या...4  

जीवन नर्क सदृश्य ही बीते, व्यर्थ बीत पल जायेंगे।                 

बीते हुए कभी न लौटे, नहीं किसी को भायेंगे।।                   

धन वैभव भी काम न आये, यादें डाहें डरे डरे।  आओ ईर्ष्या.....5      

सत पथ पर चलने वालों के, उपजे मानवता ठाने।               

संग प्रेम सौहार्द पनपते, भ्रम दुविधा भागें जाने।।             

अविनाशी सार्थक हो जीवन, मन की चाहत नहीं बरें। आओ ईर्ष्या...6    



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