हत्यारे
हत्यारे


गली- गली में, शहर-शहर में घूम रहे हैं हत्यारे
जान बचाने के लाले हैं समझ नहीं आता प्यारे।
लोकतंत्र की हत्या होती जो उनके हैं रखवारे
कुर्सी के खातिर न चाहे या चाहें जिसको मारे।
सदा मीडिया घुलमिल जाती है ऐसी सरकारों में
उनके जय जयकार छापती रहती है अखबारों में।
सरे आम इज्जत बिकती है बोल लगाए जाते हैं
सत्य सदा बिकता आया है झूठ छिपाये जाते हैं।
न्यायालय में न्याय चीखता चिल्लाता रह जाता है
अन्यायी बेखौफ घूमता न्यायी डरकर छिप जाता है।
संविधान के हत्यारे अपना संविधान बनाते जब
राष्ट्र सिसककर रह जाता फरमान सुनाए जाते जब।
हत्यारों को शोहरत मिलती, जेब गरम उनकी होती
भोली भाली जनता सारी बस रोती दिखती होती।