हर रिश्ता भुला दो
हर रिश्ता भुला दो
भुला दो तुम
मुझसे जुड़ा कोई भी रिश्ता
क्योंकि हर रिश्ते में
उम्मीद के साथ
प्रतिद्वंद्विता भी थोड़ी सी जुड़ती है ,
क्यों पड़ते हैं हम सब
इन रिश्तों के चक्कर में
ऐसा क्या है आखिर इसमें
इसके आते ही हर बात
क्यों बिगड़ने सी लगती है ,
ज़रूरत से ज़्यादा कसा बंधन
कभी भी अच्छा नहीं होता
फिर क्यों रिश्तों की डोर
बिना किसी वजह के
मन को कसती सी बढ़ती है ,
उन्मुक्त उड़ान सबको चाहिए
कागज़ की पतंग को भी
ढील दो ढील दो कहते हैं
ज़रा सा ज़ोर से खिंचने पर
पल भर में कटती सी गिरती है ,
आओ सारे रिश्ते छोड़कर
मन से मन जोड़ते हैं
देखना फिर हमारी सोच
बेवजह किसी भी नुक्स के
बड़े प्यार से सराहती सी हॅंसती है ।