हकीकत
हकीकत


लफ्ज़ों को यूं तोड़ - मोड़ कर
कुछ अश्यार उभर आते हैं
जहां लब रहते हैं खामोश-२
काले पन्ने कुछ कह जाते हैं
सुकून की तलाश में बेचैनियाँ
निगाहों को कर देती है खफा-२
उम्मीदें जहां खो देती है रास्ता
मंजिल सराबों की होती अक्सर वहाँ
आस्तियां ठंडे होने की देर थी
कि रश्क फैल गया हवाओं में
ताक रही थी दो आंखें जीने को
बाकी सब गुम थे हिसाबों में
बह सकती अल्फाजों की स्याही
एहसास छुप सकते मुखौटों में
दिल के शीशे कितने भी टूटे
कौन जान डाले मरे जमीरों में
हंसते-हंसते क्यों आंखें नम हुई
कौन सा धोखा इन्हें याद आ गया
दर्द में मुस्कुराना थी मेरी अदा
यह अश्क क्यों हद से बाहर आ गया...