हे वीर ! तू चल
हे वीर ! तू चल
हे वीर! तुम्हारे कर्मों में
ये कैसी मलीनता आ गयी
नित्य प्रयासों को छोड़
हार-जीत की चिंता आ गयी
तुम्हारे अटूट विश्वास को
ना कोई आंधी डिगा पाएगी
डुबाने को आती लहरे
शर्मशार, खुद ही लौट जाएगी
तू घबरा कर बैठ गया कैसे?
अभी तो मीलों दूर चलना है
छोटे-छोटे ठहराव बने
अभी तो पूरा शहर बनना है
तो बहते उन पसीनों में
तू अपनी नाकामी ना पढ़
सफलता के इतिहास में ग़र
हो तो अक्षर रक्त से गढ़
वो जीवन भी क्या जीवन है
जो बूंद बनकर पनघट को जाए
और वो वीर भी क्या वीर है
जो सर झुका कर मरघट को जाए
तो उठ और चल
अभी करने को काम बहुत है
सिर गिनाकर,चुप रहने वाले
जग में ऐसे नाम बहुत है।