हे राम तुम कहाँ नहीं हो
हे राम तुम कहाँ नहीं हो
हे राम तुम कब हो और कहाँ नहीं हो
तुम यहाँ हो और वहां नहीं हो ?
मेरे मन और तन मैं हो ,
इस जग जन के हर मन में हो,
तुम आदि , अंत परायण हो,
तुम मेरी अखंड रामायण हो।
तुम चर में हो अचर में हो,
सृष्टि के हर कण में हो ,
तुम जड़ में हो चेतन में हो ,
अंतःकरण के अवचेतन में हो,
तुम युग भी हो कालांतर हो ,
या शरीर प्राण का अंतर हो ,
तुम भीतर हो और बहार हो ,
तुम शांत स्थिर कोलाहल हो।
मंगल भवन अमंगल हारी ,तुम नर से नारायण हो ,
मावस कार्तिक हर घर पहुंचे, वो तुलसी के मानस हो,
श्री राम चंद्र कृपाल भजमन, प्रातः संध्या वंदन हो ,
सचिदानंद अलौकिक अंतर्मन के स्वामी हो ,
जागो राम, पर तुमको अब मर्यादा में बंधना होगा,
सिमट एक नगरी का बन बस तत्त्व पदार्थ बनना होगा,
तुम्हारी निश्चित परिणीति- गति, राज प्रशासन है,
अयोध्यापति हो ये अब तुम पर शासन का अनुशासन है।