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Kshama Sharma

Abstract

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Kshama Sharma

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प्रकृति और इंसान

प्रकृति और इंसान

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पता नहीं यह सृष्टि रो रही है या रुला रही है बात सरल, पर समझ नहीं आ रही है।

खैर क्वारंटाइन और लोकडाउन के बाद कल फिर एक वही पुरानी सी सुबह होगी। 

बस को पकड़ते ,स्कूल का बस्ता लटकाये बच्चों की, 

पार्क में फिटनेस के लिए योग करते, छोटे- बड़े समूहों और अकेले दौड़ते लोगों की, 

रोज़ मर्रा की जरुरत के लिए भागते हर आम और खास की। 


सड़कों पर जाम में फसी हुई गाड़ियों की वही पुरानी सी दोपहर होगी।

आपाधापी में भागते दिन की वही घड़ियाँ होंगी। 

बच्चों के शोर और खेलने की चहचहाट भी वही होगी। 

शॉपिंग मॉल में घूमते परिवार और बच्चों की रौनक भी वही पुरानी सी होगी। 


जिंदगी की रफ़्तार फिर कुछ सामान्य सी होगी।  

पर उस सामान्य में कुछ ऐतिहासिक, अभूतपूर्व, अनुभव और स्मृतियाँ होंगी। 

स्मृतियाँ होंगी मानवता के संकल्प और सयम की जीत की,

गलतियां के सुधार और आत्मीयता के विस्तार की,


या आत्मविभूत मानवता के विराटता के अभिमान की 

और खाक में मिलती हर घडी लाखों स्वास की, 

निर्णय मुश्किल ,परिणाम अनिश्चित किन्तु बहुत पास है। 


अब भी इंसान यदि तुझे अपनी श्रेष्ठता पर दम्भ है,

तो देख उस सूक्ष्म विषाणु की पहुँच तेरी सोच और ज्ञान के पार है। 

हम स्तब्ध और त्रस्त, उसका बस एक प्रहार है।

समय है, प्रकृति के प्रभाव और प्रताप को पहचान 

संकल्प, संयम सहित समस्त सृष्टि को दे सम्मान। 


प्रकृति प्रलय है, विध्वंस है, सृजन का आधार है, 

और मानव की मानवीयता सृष्टि की दिव्यता का सार है

प्रकति और मानव मैं चयन का विकल्प सिर्फ प्रकति है

ठहर, संभल ,संगरोध तेरे अस्तित्व की अभी कुछ दिन शायद यही नियति है।                      


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