हे प्रिया
हे प्रिया
हे प्रिया
जब रातें छोटी
और दिन की
सीमा बढ़ जाती है
तब ऐसा
मौसम आता है
कि उस/तुझ
पगली लड़की के
बिन रातों का नक्शा
अत्याचारी लगता है !
तू खास किस्म की
महिलाओं से करती थी
बाते पहले और
देख मुझे पागल सी
हँसती थीं तब कैसी
तू लड़की थी ?
जब गलियों में होता था
दिलचस्प अंधेरा तू
आकर्षण बन हँसती थीं !
वे कितने ऐसे होते हैं
जो तेरे आंलिगन को
जादू-टोना पढ़ते हैं !
पर मैं कोई और नहीं
हे प्रिया!
मैं तुम्हें और
प्रिय
बनाने आया हूँ
बन प्रिय
फिर उठती ढहती
तेरी देह में लहरें,
जुल्फें, निगाहें
मेरी देहगंध से
बौराती हैं
क्यों प्रिया?
हे प्रिया!