है!
है!


कंक्रीट के इस जंगल में,
पाषाण हृदयों का वास है !
गरल से परिपूरित भाव हैं,
और जिव्हा से निकास है !
ये संजय भी तो आजकल,
धृतराष्ट्र से कर रहे हैं छल !
चाह भी राजा, न करे कुछ,
उसे भी छल का आभास है !
हाथ, ये क़लम छोड़ रहे हैं,
ख़ुदको पाप से जोड़ रहे हैं !
पहले कर-कमल हो जाते थे,
आजकल ये सब कयास है !
चोगे भी आज तो मैले हुए हैं,
दाग इस पे यूँ ही फैले हुए हैं !
दागों को बोला जा रहा अच्छा,
विश्वास खो रहा ये संन्यास है !
मुझे आदत थी सत्यवादन की,
ये कटु सत्य के आस्वादन की !
जिजीविषा ने करवा दिया मुझे,
मिथ्यावादन का ये अभ्यास है !