हाँ वक्त हूँ मैं !
हाँ वक्त हूँ मैं !
सुनो वक़्त हूँ मैं, हाँ वक्त ही हूँ
वश में किसी के मैं आता नहीं
मेहमान तेरा है पल पल मेरा
पर यह कोई भी समझता नहीं
महीने नौ अंधकार में जीकर
उजाले में वह तेरी पहली श्वास
थाम लेता हूँ उँगली तेरी उसी पल
होता है वह पल सबसे खास
होले से उसी पल से देखो
सफर शुरू होता है दोनों का
मैं रुक सकता नहीं कहीं भी कभी
तुम्हें रुकते चलते पड़ता है जीना
ना कोई शक्ल है मेरी ना कोई रंगत
बिन गिनती के हूँ सदियों पुराना
गम और खुशी मेरे स्वरूप नही , पर
हैं कभी ग़मगीन तू कभी है खुशनुमा
रवानी में अपनी यूं डूब जाते हो
आँख मिचौली मुझसे ही करते हो
मुश्किल कभी जब आन पड़ती है
तोहमत मुझ पर क्यों तुम लगाते हो
खफा या रज़ा होना मेरा
ना कर्म है मेरा और धर्म भी नहीं,
दो पलों के बीच की तेरी अपनी दुनिया
खुद की है यह तेरी कहानी रची हुई
वक्त हूँ मैं पल पल भीत जाता हूँ
पलट सकता नहीं मैं किसी की खातिर,
खुद संभलो पहचानो फिसलते लम्हों को
टंगी हुई घड़ियाँ होती हैं बड़ी शातिर।।।